Friday, 29 January 2021

स्त्री बलिदान

कुछ टूट रहा है, हम बिखर रहे हैं।


तेरे आँसू मेरी आँखों से बह रहे हैं 


तेरा दर्द आज मेरे सीने में चुभ रहा है


आज फिर एक स्त्री की बलि चढ़ी


समाज के रंगमंच ने नई लीला रची।


उसका रोम रोम जलता रहा और


लोग उसकी परिक्रमा लगाते रहे।


वो झुलस झुलस कर रोती रही और


लोग तलियाँ बजा कर मज़ा लेते रहे।


ना वो आग ठंढी हुई ना लोगों का मन


उस झुलसे शरीर पर लोग घी डालते गए।


दी बलि उसने जिस समाज की खातिर


वो अबला कह उसे कोसते रहे।


हे समाज!


तड़पती उस आत्मा की आह से तो डर।


स्त्री के बलिदान की थोड़ी कदर तो कर।


मोह में बंध जो वो दे ना सकी उस श्राप से तो डर


जो आंधी आई तो बिखर जाएगा सब


मलबा समेटने कौन आएगा तब?




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